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Monday, February 25, 2019

कुशीनगर - एक विस्तृत अवलोकन


आइए, आज आपको मैं कुशीनगर का विधिवत दर्शन कराता हूँ, इसके बारे में विस्तार से बताता हूँ, आपको एक अविस्मरणीय, अद्भुत, अलौकिक, धर्म व ज्ञान मिश्रित ऐतिहासिक यात्रा पर ले चलता हूँ। वैसे तो, कुशीनगर विश्व प्रसिद्ध है, क्योंकि यह भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली जो है। यहाँ की मिट्टी में धर्म-ज्ञान व शौर्य का अद्भुत त्रिरूप देखने को मिलता है। ज्ञान, धर्म, शौर्य, राजनीति आदि के क्षेत्रों में यह क्षेत्र सदियों से, प्राचीन काल से केवल भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व का मार्गदर्शन करते आ रहा है।

यह बुद्ध-स्थली राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर उत्तर-प्रदेश के गोरखपुर से पूर्व दिशा में 52 किमी पर स्थित है। आप चाहें तो गोरखपुर से सीधे यहाँ पहुँच सकते हैं। गोरखपुर से यहाँ आने के लिए वाहनों की भरमार है। आपको गोरखपुर बस अड्डे से 10-10 मिनट पर कुशीनगर की सवारी मिल जाएगी। आप से देवरिया या पडरौना से भी सीधे यहाँ पहुँच सकते हैं। कुशीनगर से सटे ही कसया (कसिया) नामक एक शहर (बाजर) स्थित है। मुश्किल से कसिया और कुशीनगर के बीच 1-2 किमी का अंतर होगा। भारत के महानगरों के साथ ही आप नेपाल से भी आसानी से यहाँ पहुँच सकते हैं।
कुशीनगर, वैसे तो ग्रामीण क्षेत्रों में बसा हुआ है। आस-पास में आपको धान-गेहूँ, मक्के, गन्ने, सरसों आदि के लहलहाते खेत दिख जाएंगे। पर यह ग्रामीण परिवेश इसकी नयनाभिराम, धार्मिक व पर्यटन छवि को नैसर्गिक सादगी प्रदान करते हुए एक अप्रतिमता, अलौकिकता से भर देता है। आप कुशीनगर के आस-पास में बसे गाँवों की भी सैर कर सकते हैं और भोले-भाले पर समृद्ध ग्रामीणों से मिलने के साथ ही उनकी आतिथ्य सेवा से अपने आप को गौरवान्वित कर सकते हैं। खेतों में से गन्ना तोड़कर खाना हो या कोल्हुआड़ में कचरस का आनंद उठाना हो, या गुलवर पर बदकते महिए के रसास्वादन करना हो, या गरमा-गम गुड़ (मिट्ठा, भेली) खाना हो, देर मत कीजिए ठंड के मौसम में कुशीनगर पहुँच चाहिए। धर्म-आध्यात्म-ईश्वरत्व के साथ ही भारत की आत्मा के दर्शन हो जाएँगे आपको। वैसे आप किसी भी मौसम में कुशीनगर आ सकते हैं और इस अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल, धर्म-नगरी में कुछ दिन रहकर अपने जीवन को आनंदमय, चरितार्थ कर सकते हैं और कृषि-प्रधान इस क्षेत्र की खेती-किसानी से परिचित होने के साथ ही इनकी मातृभाषा भोजपुरी बोल-सिख सकते हैं। 
कुशीनगर से अगर आप पूर्व की ओर बढ़ते हैं तो मात्र 20-22 किमी के बाद ही बिहार राज्य शुरू हो जाता है। वैसे तो कुशीनगर में पूरे विश्व से बौद्ध-भिक्षु आते हैं, बौद्ध-अनुयायी आते हैं पर इस क्षेत्र के साथ ही आस-पास के लोग भी, चाहें वे किसी भी धर्म के हों, बौद्ध भगवान के चरणों में शीश झुकाने के लिए सहर्ष यहाँ आते रहते हैं और गर्व महसूस करते हैं कि भगवान बुद्ध ने धरा के इस टुकड़े को अपने स्नेह से सिंचित किया है, अपने पगचिह्नों से इसे ऊर्जावान करते हुए, अपनी वाणी से इसे बोधमय बनाया है। 
ऐतिहासिक रूप से देखें तो कुशीनगर का इतिहास अति प्राचीन व गौरव से भरा हुआ है। भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली होने के साथ ही प्राचीन काल में यह मल्ल वंश की राजधानी था। चीनी यात्री ह्वेनसांग व फाहियान ने अपने यात्रा-वृत्तांतों में भी इस प्राचीन ऐतिहासिक व धर्म नगरी को अपनी लेखनी से नमन किए हैं। हिंदू धर्मग्रंथों (विशेष कर वाल्मिकी कृत रामायण) में भी इस नगरी का उल्लेख मिलता है और इसे भगवान राम के पुत्र कुश की राजधानी के रूप में उल्लेखित किया गया है। उस समय इसे कुशावती के रूप में लिपिबद्ध किया गया है। पालि साहित्य के ग्रंथ त्रिपिटक के अनुसार बौद्ध काल में यह स्थान षोड्श महाजनपदों में से एक था। उस समय मल्ल राजाओं की यह राजधानी हुआ करती थी और कुशीनारा के रूप में अपनी प्रसिद्धि का प्रसार कर रही थी। ऐसा माना जाता है कि पांचवा शताब्दी के अंत में यहाँ भगवान बुद्ध का आगमन हुआ था। वे अपने शिष्यों से मिलने और यहाँ की जनता को उपदेश रूपी अपने आशिर्वाद देने यहाँ आए थे। भगवान बुद्ध अपने परिनिर्वाण के लिए इस नगरी को उचित समझते हुए अपने दिव्य शरीर को यहीं छोड़कर अशीरीरी के रूप में जन कल्याण, मानव कल्याण के लिए अपनी दिव्य आत्मा को प्रकृति के साथ एकाकार कर दिए।
अगर इतिहासकारों की मानें तो कुशीनगर के पास ही स्थित फाजिलगनर के पास के एक गाँव (छठिआंव) में भगवान बुद्ध के ही एक शिष्य द्वारा गलती से इन्हें सूअर का कच्चा गोस्त खिला दिया गया था और शिष्य प्रेम की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए भगवान बुद्ध ने उसे सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। भगवान की लीला अपरंपार होती है। कहते हैं कि गोस्त खाने के बाद भगवान बुद्ध को दस्त शुरू हो गया और कुशीनगर जाते-जाते, भगवान बुद्ध ने अपने ईश्वरत्व से परे दिव्य सांसारिक शरीर को नश्वर बताने के लिए, इस लौकिक संसार की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए अपने शरीर का त्याग करके परिनिर्वाण ग्रहण कर लिया।
फाजिलगनर में भी आज भी कुछ टीले विद्मान हैं। इन टीलों की खुदाई दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा कराया गया, जिसमें अनेकानेक प्राचीन वस्तुएँ मिली हैं। फाजिलगनर के पास के ही जोगिया जनूबी पट्टी नामक एक गाँव में एक अति प्राचीन मंदिर के अवशेष भी मिले हैं, जिसमें भगवान बुद्ध की एक अति प्राचीन मूर्ति खंडित अवस्था में मिली है। गांव वाले इस मूर्ति को 'जोगीर बाबा' कहते हैं। संभवत: जोगीर बाबा के नाम पर ही इस गांव का नाम जोगिया पड़ा होगा। इतना ही नहीं, इस गाँव के लोगों द्वारा लोकरंग सांस्कृतिक समिति भी बनाई गई हो, जो प्रतिवर्ष, मई महीने में जोगीर बाबा के स्थान के पास `लोकरंग´ कार्यक्रम आयोजित करती आ रही है। इस कार्यक्रम में देश भर के नामी साहित्यकार और कलाकार अपनी उपस्थिति दर्ज करके इस कार्यक्रम की शोभा बढ़ाते हैं।
इस ऐतिहासिक स्थल को विश्व प्रसिद्ध करने में, यहाँ की गई भगवान बुद्ध की ज्ञानमयी गौरव-लीला को जन-जन तक पहुँचाने में दो अंग्रेज अधिकारियों जनरल ए कनिंघम और ए. सी. एल. कार्लाइल को श्रेय देना उचित होगा। भगवान बुद्ध के कृपा-संकेत से सन 1861 में इन दोनों ने इस स्थल की खुदाई करवाई। इस खुदाई में बहुत सारी बुद्धकालीन चीजों के साथ ही छठी शताब्दी की बनी भगवान बुद्ध् की लेटी प्रतिमा भी मिली थी। यह प्रतिमा आज भी यहाँ सम्मान रखी गई है और अनुयायियों के आस्था का केंद्र बनी हुई है। इस प्रतिमा के साथ ही मुख्य रूप से रामाभार स्तूप और माथाकुंवर मंदिर भी खोज निकाले गए थे। इतना ही नहीं, इस गौरवमयी, ऐतिहासिक स्थल की प्राचीनता को जगजाहिर करने के लिए 1904 से 1912 के दौरान भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग द्वारा यहाँ अनेकों स्थलों पर खुदाई कराई गई, जिसमें बहुत सारी ऐतिहासिक चीजें प्राप्त हुईं।
कुशीनगर जिले की बात करें तो पहले यह देवरिया जिले का ही अंग था। देवरिया अपने आप में अपने देवत्व (देव+एरिया=देवरिया) को चरितार्थ कर रहा है। बाद में देवरिया के कुभ भागों को अलग करके इसे एक जिले के रूप में अस्तित्व में लाया गया। कुछ विद्वान 'देवरिया' की उत्पत्ति 'देवारण्य' या 'देवपुरिया' से मानते हैं। यही देवरिया ब्रह्मर्षि देवरहा बाबाबाबा राघव दासआचार्य नरेंद्र देव जैसे महापुरुषों की कर्मभूमि रहा है।  तो सब मिला-जुलाकर देखा जाए तो यह पूरा क्षेत्र ही सहज, नैसर्गिक आलौकिकता से ओत-प्रोत है।  आप कुशीनगर के साथ ही देवरिया, गोरखपुर, बिहार, वाराणसी आदि का भ्रमण भी कर सकते हैं। यहाँ हर स्थल, हर शहर अपने आप में एक ऐतिहासिक विरासत को समेटे हुए ईश्वरी उपस्थिति का आभास कराता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो कुशीनगर से 16 किमी दक्षिण-पश्चिम में मल्लों का एक और गणराज्य (पावानगर जो वर्तमान में फाजिलनगर कहलाता है) समृद्ध रूप से अस्तित्व में था, जहाँ जैन धर्म का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ऐतिहासकारों की माने तो यहाँ भगवान बुद्ध के समकालीन, जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था।
धर्म की दृष्टि से इस क्षेत्र की बात करें तो अति प्राचीन समय से यहाँ हिंदू रहते आए हैं। बाद में यहाँ इन दो धर्मों का प्रभाव परिलक्षित होता है तथा साथ ही बाद में मुस्लिम धर्म से भी यह क्षेत्र अछूता नहीं रहा है। आज अगर जनसंख्या की दृष्टि से देखा जाए तो यहाँ हिंदुओं का बाहुल्य है, पर ये हिंदू और साथ ही यहाँ रहने वाले अन्य धर्मावलंबी सर्व धर्म समभाव के आदर्श को जीवित रखे हुए हैं। गुप्तकाल के तमाम भग्नावशेष आज भी इस जिले और आस-पास के क्षेत्रों में बिखरे पड़े हुए हैं। कई सारी जगहों को पुरातात्विक महत्व का मानते हुए पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित कर रखा है। उत्तर भारत का एकमात्र सूर्य मंदिर भी इसी जिले के तुर्कपट्टी में स्थित है। इस मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठित प्रतिमा गुप्तकालीन है, जो खुदाई के दौरान यहीं प्राप्त हुई थी। 
कुशीनगर को आज एक जिले का गौरव भी प्राप्त है। इसका जिला मुख्यालय पडरौना है, जो बिहार सीमा के काफी करीब स्थित है। पडरौना के बारे में कहा जाता है कि भगवान राम माँ जानकी से विवाहोपरांत, माँ जानकी और सभी बरातियों के साथ जनकपुर से इसी मार्ग से होकर अयोध्या वापस आए थे। इस क्षेत्र से वे पधारे थे, इसलिए इस क्षेत्र को पहले पदरामा (राम के पदों से अविभूत) कहा गया, जो बाद में पडरौना के रूप में अपनी पहचान बना ली। इसी क्षेत्र से होकर बांसी नदी भी बहती है। कहा जाता है कि इस नदी के मनोरम तट के किनारे भगवान राम ने थोड़ा विश्राम किया था। जिस घाट से उन्होंने इस नदी को पार किया था, आज भी वह घाट रामघाट के नाम से जाना जाता है। प्रतिवर्ष यहाँ भव्य मेला लगता है। बांसी की धार्मिक महत्ता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यहाँ के स्थानीय निवासी कहा करते हैं, सौ काशी न एक बांसी। आज यह कहावत हर स्थानीय लोगों की जुबान पर है। कहने का मतलब यह है कि बांसी की महत्ता धर्मनगरी काशी (वाराणसी) से भी बढ़कर है, और हो भी क्यों नहीं? आखिर यहीं तो विश्वनाथ, बाबा भोलेनाथ के आराध्य भगवान राम, माँ जानकी के साथ विश्राम करके इस क्षेत्र को अलौकिक बना दिए। भगवान राम व माँ जानकी के चरण-रज से पवित्र है यह क्षेत्र। 
यह बोध क्षेत्र शिक्षा से भी पूरी तरह समृद्ध है। यहाँ एक सरकारी महाविद्यालय एवं इंटर कॉलेज के साथ ही आपस-पास के क्षेत्रों में अनेकानेक विद्यालय, शिक्षा-केंद्र हैं। यह पूरा क्षेत्र समृद्ध किसानों के साथ ही शिक्षाविदों, राजनेताओं का भी पोषक है। आपको यहाँ हर गाँव में कुछ सैनिक मिल जाएंगे, जो माँ भारती की सेवा में लगकर अपने आपको धन्य समझते हैं और यह क्षेत्र भी माँ भारती के साथ ही इन सपूतों पर गर्व करके फूलों नहीं समाता है।

हर वर्ष पहली जनवरी को यहाँ लाखों की भीड़ होती है। दूर-दूर से लोग नववर्ष मनाने के लिए यहाँ सपरिवार आते हैं और इस धर्मनगरी-बोधनगरी का नयनाभिराम दर्शन करके अलौकिक परमानंद की प्राप्ति करते हैं। इतना ही नहीं, बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर भी यहाँ भव्य मेला लगता है, जो महीनों तक चलता है। इस मेले में आपको धार्मिकता के साथ ही सरल-सहज जीवन के साथ ही मानवता के दर्शन होते हैं। 
भाषा की बात करें, बोली की बात करें तो भोजपुरी केवल बोली ही नहीं, लोकभाषा ही नहीं, अपितु कुशीनगर की जनता के दिल की आवाज़ है, उनका जीवन है, और है, उनका घर-संसार। भोजपुरी उनके कामों में, उनके व्यवहारों में एवं उनके पहनावों में झलकती है।

मौसम की दृष्टि से इसे समशीतोष्ण कहना उचित होगा। यहाँ कुल मिलाकर मौसम एकदम ठीकठाक रहता है। जाड़ा, गर्मी, बरसात, तीनों हैं यहाँ बराबर के हिस्सेदार। परंतु मई-जून की गर्मी और ऊपर से चलती लू में कुछ लोग घरों में दुबके रहना ही उचित समझते हैं। वैसे इनसे बचने के लिए सिर पर गमछा होना आवश्यक है तथा साथ ही पेय पदार्थों में बेल (श्रीफल) का रस, कच्चे आम का रस, सतुई व नींबू-पानी पीना हितकर होता है।
जनवरी, फरवरी आदि में अच्छी ठंडक के साथ-साथ कुहा तो कभी-कभी सूर्य को कई-कई दिन तक निकलने ही नहीं देता है और वाहन अपनी बत्ती जलाकर सड़कों पर रेंगते नजर आते हैं। इस ठंड से बचने के लिए गाँवों में लोग कंबल आदि ओढ़कर या गाँती बाँधकर कौड़ा (आग) तापते हैं और रात को जल्दी ही माँ निद्रा की गोद में चले जाते हैं। ठंड के दिनों में रजाई, स्वेटर, मफलर आदि रात-दिन शरीर की शोभा बढ़ाते हैं। इस मौसम में होरहा खाने और कचरस (गन्ने का रस) पीने का आनंद ही कुछ और होता है।

जुलाई-अगस्त में बरसा रानी झमाझम बरसती हैं और किसान हर्षित होकर धान की रोपाई में भिड़ जाता है। एक बात और, बरसात के मौसम में कभी-कभी किसी की बारात में शामिल होना यादगार बन जाता है, जब पत्तल में मेढ़क कूदते नजर आते हैं। कभी-कभी आँधी, तूफान भी तंबू को उड़ा ले जाते हैं और कभी-कभी कुछ बरातियों को बिन खाए ही रात काटनी पड़ती है। 
कृषि की बात करें तो, यही तो इस जनपद का प्राण है। रबी (गेहूँ आदि) और खरीफ (धान आदि) बहुतायत में पैदा होता है। गन्ना तो किसानों का पुत्र है जो इनको मुद्रा लाभ कराता है, इसलिए गन्ने की खेती भी अधिकता से की जाती है। 

इस जनपद की मिट्टी कई प्रकार की है जैसे:- दोमट, बलुई दोमट, भाठ, मटियार और बलुई (बहुत कम)। इस क्षेत्र में नहरों का जाल फैला हुआ है। सिंचाई के लिए नहरों के अलावा नलकूप, बोरिंग (पम्पसेट द्वारा) और तालाब आदि का उपयोग किया जाता है । सरकार द्वारा हर किसान को निःशुल्क बोरिंग उपलब्ध कराया गया है।
सब मिला-जुलाकर जनपद कुशीनगर एक संपन्न क्षेत्र है। यहाँ के लोग प्रशासन में ऊँचे-ऊँचे पदों की शोभा भी बढ़ाते हैं, प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय में शिक्षा भी देते हैं, और अपने दूसरे भारतीय भाइयों के साथ सीमा पर भारत माँ की सजगता से रक्षा भी करते हैं। इस जनपद के कुछ लोग रोजी-रोटी की जुगाड़ में देश के बड़े-बड़े नगरों और विदेशों में भी रहते हुए इस क्षेत्र की धरती से जुड़े हुए हैं। भारतीय राजनीति में भी इनका अच्छा-खासा योगदान है।

अब आइए, आपको इस जिले की कुछ और विशेषताओं से परिचित कराता हूँ।
आइए, अब आपको कुशीनगर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में संबंधी या रिस्तेदार के लिए प्रयुक्त भोजपुरी संबोधनों से परिचित कराता हूँ। इन संबोधनों का प्रयोग गँवई जनमानस के साथ-साथ नगरी जनमानस भी बहुतायत से करता है। धीरे-धीरे इन शब्दों की जगह पर अंकल, आंटी, पापा, मंमी, डैडी, मॉम आदि शब्द भी प्रयुक्त होने लगे हैं पर भोजपुरी संबोधनों का अस्तित्व अभी भी बना हुआ है। ये भोजपुरी संबोधन अपनापन और मिठास से सराबोर हैं। बाबूजी (पिता के लिए संबोधन) कहने से जो अपनापन, प्रेम एवं सम्मान पिताजी के प्रति झलकता है वह पापा, डैड या डैडी कहने से नहीं। पापा, डैड या डैडी बनावटी लगते हैं और इनके उच्चारण में भी रूखापन और बनावटीपन झलकता है।
तो आइए अब भोजपुरी संबोधनों से परिचित होते हैं:-

ध्यान दें- भोजपुरी शब्दों के आगे कोष्टक में हिन्दी शब्द भी दिए गए हैं। यहाँ उन शब्दों को नहीं रखा गया है जो हिन्दी जैसे ही बोले जाते हैं । जैसे - मामा, मामी, नाना, नानी इत्यादि।

बाबूजीबाबूभइया (पिताजी) माई (माँ) काका (चाचा) काकी (चाची)। मउसी (मौसी)मउसा (मौसा) बाबा (दादा) - आजा भी बोलते हैं लेकिन आजा शब्द का प्रयोग दूसरा कोई जब किसी से किसी के दादा के बारे में बात करता है तो करता है- जैसे- तोहार आजा कहाँ बाने? (तुम्हारे दादा कहाँ हैंइसी प्रकार दादी के लिए आजी का प्रयोग भी होता है)। इया (दादी)। परपाजा (परदादा)। परपाजी (परदादी)। फुआ (बुआ)। फूफा। सार (साला)। सारि (साली)। भउजी (भाभी)। 
भइया (बड़े भाई)। मरद, बुढ़ऊ, मालिक (तहार मालिक काहाँ बाने- आपके पति कहाँ हैं?) (मर्दपति)मेहरारू, मउगीमेहरी, मलिकाइन (औरतपत्नी)। पतोहिया (पतोहू)। दामाद, दमाद। जीजा (बड़ी बहन का पति)। पहुना, पाहुन (किसी भी रिस्तेदार के लिए और दामाद के लिए भी)। बहनोई। देयादिन (पति के भाई की पत्नी)। देवरानी (देवर की पत्नी)। ननदी, ननद (ननद)। ननदोई (नंदोई)।
सरहज (साले की पत्नी)। जेठ, जेठजी (पति के बड़े भाई)। देवर, देवरू (देवर)। लइका, बेटवा, बेटउआ, लइकवा, बंस (लड़का, पुत्र)। लइकिनी, लइकी, बिटियाबेटी, बुनिया (लड़कीबेटी) 
बहिनबहिनी (बहन)। भइया (भाई)। समधी। समधिनीसमधिआइनसमधिन (समधिन) 
साढ़ूसारू (पत्नी की बहन का पति)। सढ़ूआइन (साढ़ू की पत्नी)
नाती (पुत्र या पुत्री दोनों के बेटे के लिए)। नतिनी (पुत्र या पुत्री दोनों के बेटी के लिए)। वैसे पुत्र के पुत्र या पुत्री के लिए पोता और पोती भी खूब चलता है। पिता की भाभी के लिए बड़की माई, बड़की अम्मा तथा पिता के बड़े भाई के लिए बड़का बाबूजी प्रयुक्त होता है।
बड़े बेटे को बड़कू (जैसे- तोहार बड़कू कहाँ बानेमतलब आपके बड़े बेटे कहाँ हैं?) इसी प्रकार छोटे बेटे को छोटकूमँझले बेटे को मझीलूसाझिल बेटे को सझीलूबड़ी बेटी को बड़कीछोटी बेटी को छोटकी, मँझली बेटी को मझीलीसाझिल बेटी को सझीली कहते हैं।
छोटे बच्चों को बाबू से भी संबोधन करते हैं।
अपरिचित व्यक्ति जब किसी लड़के को बुलाता है तो मुन्ना या गुड्डू और किसी लड़की को बुलाता है तो मुन्नीगुड्डी या बिटिया कह कर संबोधित करता है।
किसी भी बुजुर्ग के लिए काकाबाबा और महिला बुजुर्ग के लिए काकीईया आदि संबोधन प्रयुक्त होते हैं।


अब आइए, इस जनपद में और इसके आसपास के क्षेत्रों में अभिवादन के तरीकों एवं अभिवादन और आशिर्वाद के लिए प्रयुक्त होनेवाले भोजपुरी शब्दवाक्यांश आदि पर विचार कर लें। ये प्रयोग हिन्दी अनुवाद एवं व्याख्या के साथ दिए जा रहे हैं।अभिवादन के ये ढंगशब्दवाक्यांश आदि एक दूसरे के प्रति श्रद्धाआदरप्रेम आदि के साथ ही साथ भोजपुरी सभ्यतारहन-सहन एवं माटी की प्रेम सनी खुशबू को व्यक्त करते हैं।भोजपुरिया समाज में अभिवादन करते समय झुकने की प्रथा है। झुकने मात्र से ही सामनेवाले के प्रति हमारा सम्मानश्रद्धाप्रेम आदि प्रकट हो जाता है और सामनेवाले के हृदय में भी हमारे प्रति प्रेम एवं मंगल की भावना पल्लवित हो जाती है।
भोजपुरिया समाज में भेंटने की प्रथा है।जब कोई महिला किसी दूसरी महिला से मिलती है तो गले मिलकर अँकवार देती है। अगर नई-नवेलीदुल्हन है तो अपनी माँचाचीबुआ आदि को अँकवार देते समय रोती भी हैविशेषकर विदाई के समय।
 वह अपनी माँ को भेंटती है तो 'अरे हमार माईया 'अरे हमार माई हो माईया 'माई हो माईइन वाक्यांशों में से किसी एक को बोलते हुए रोती है। इसी प्रकार अगर बुआचाची आदि को भेंटती है तो माई की जगह पर बुआचाची आदि का प्रयोग करती है।
उसे रोता देख अन्य महिलाएँ भी रोने लगती हैं या कुछ आँखे नम कर लेती हैं और उसे बार-बार चुप कराने की कोशिश करती हैं।
अगर दुल्हन के मायके का कोई व्यक्ति उससे मिलने उसके ससुराल जाता है तो वह उन्हें भी भेंटती है। इस भेंटने में वह क्या करती है कि अपने पिताभाई आदि का पैर पकड़कर रोती है और उसके पिता, भाई आदि नम आँखों से उसे चुप कराते हैं।
ये अवसर प्रेम की, अपनत्व की पराकाष्ठा से सराबोर होते हैं। आधुनिक युग में कुछ पढ़े-लिखे भोजपुरिया लोगों को यह सभ्यता गँवारू दिखती है जिसके कारण आधुनिकता के चक्कर में वे इससे दूर रहना ही पसंद कर रहे हैं।

आइएअभिवादन और आशिर्वाद के कुछ विशेष पहलुओं से परिचित होते हैं:-
अभिवादन:- भोजपुरिया समाज में अभिवादन के दो तरीके हैंया तो व्यक्ति चुपचाप बड़ों का चरण छूते हैं या झुककर अभिवादन करते हैं। इस समय अभिवादनकर्ता के मुँह से शब्द तो नहीं निकलते पर उसकी आँखों में और चेहरे पर सामनेवाले के प्रति अपार सम्मानप्रेम आदि प्रत्यक्ष परिलक्षित होते हैं।

दूसरा तरीका हैझुककर या पैर छूते हुए कुछ अभिवादनीय शब्द, वाक्यांश आदि बोलना। जैसे:-
1. गोड़ लागीं। गोड़ लागतानी। पैर पड़तानी। पाँव पड़तानी। पाँवलागीं। (पैर पड़ता हूँ।)- यह अभिवादन अपने से बड़ों को किया जाता है।
2. दंडवत। दंडवत महाराज। (यह अभिवादन विशेषकर किसी साधू, महात्मा आदि को किया जाता है।)
3. जय राम जी की। (यह अभिवादन अपने बराबरी वालों को किया जाता है)
4. नमस्कार। प्रनाम, परनाम (प्रणाम)
आशिर्वाद:- आशीर्वाददाता भी अभिवादनकर्ता के मंगल एवं कल्याण के लिए या तो उसके सिर पर हाथ रखता है या हाथ उठाकर आशिर्वाद देता है याऔर मंगलसूचक शब्दवाक्यांश आदि व्यक्त करता है।
(सौभाग्यवती महिला को दिया जानेवाला आशिर्वाद:-
1. जोड़ा लागो (जोड़ा लगे)- यह आशिर्वाद उस सौभाग्यवती महिला को दिया जाता है जिसके अभी केवल एक ही पुत्र हो।
2. तहार बाबू अँचरे लागल रहें (आपका पुत्र आँचल से लगा रहे।)
3. तहार सुहाग बनल रहो (तुम्हारा सुहाग बना रहे।)
4. तहार सेनुर बनल रहो (तुम्हारा सिंदूर बना रहे।)
5. दूध अउरी पूत दुनू बनल रहो (दूध और पूत दोनों बना रहे।)
6. दूधो नहा पूतो फलS (दूध से नहाइए और पूत फलें।)
(पारिवारिक महिला या पुरुष को दिया जानेवाला आशिर्वाद:-
7. तहार परिवार सुखी रहो (आपका परिवार सुखी रहे)
8. लोग-लइका सब निमने रहें (बाल-बच्चे सब अच्छे रहें)
9. लइका-फइका सब बनल रहें (बाल-बच्चे सब बने रहें)
(सबके लिए प्रयुक्त होने वाले आशिर्वचन:-
10. जुड़ाइल रहS (अच्छी अवस्था में रहिए।)
11. बनल रहS निमने रहS (हर तरह से अच्छी अवस्था में रहिए।)
12. भगवान तहके बनवले रहें। (भगवान आपको अच्छी अवस्था मेंरखें।)
13. चिरिनजीवी होखS चीरींजी होखS आयु लमहर होखे।(उम्र लंबीहो।)
14. गदाइल रहS फुलाइल रहS मोटाS। (हर तरह से अच्छीअवस्था में रहिए।)
15. गच्च रहS खुस रहS। मस्त रहS। (प्रसन्न रहिए।)
16. कुछ लोग अभिवादन के प्रत्युत्तर में बोलते हैं:- बाबू। बाबू-बाबू। जय हो।
17. जीअS। जीअS-जीअS। (आपका जीवन सानन्द बीते।)
18. नाया धरS, पुराना खाS। (नया रखिए, पुराना खाइए- तात्पर्य यह है कि आपको किसी वस्तु की कभी भी कमी न खले।)
कुछ ग्रामीण सुहागिन महिलाएँ अपने से बड़ी महिलाओं का चरण अपने आँचल में लेकर दोनों हाथों से उठाकर अपने सिर से स्पर्श कराती हैं या हाथ में आँचल लेकर पैर छूती है। इसका तात्पर्त यह है कि ऐसा करने से सुख-समृद्धि उनके आँचल में आ जाती है।


यह आलेख आपको कैसा लगा, जरूर बताएँ। और हाँ, एक बात और, यहाँ के दर्शनीय स्थलों के बारे में बहुत अधिक बताना उचित प्रतीत नहीं हो रहा, क्योंकि मेरा मानना है कि जब आप धर्म-ज्ञान की इस नगरी में आएंगे तो यहाँ की अद्वितियता के बारे में बहुत कुछ खुद ही कह जाएंगे।
अरे, अरे मान्यवर। मैं भी बराबर आगे भी आपको यहाँ के बहुत सारे स्थलों, गतिविधियों से परिचित कराता रहूँगा। बुद्ध शरणम गच्छामि के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूँ।
सादर।


प्रभाकर पांडेय गोपालपुरिया
9892448922 (मोबाइल)

 
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